परोपकार
अष्टादस पुराणेसु व्यासस्य वचनम द्वयम। परोपकाराय पुण्याय पापाय परपाडे नम।।
महर्षि व्यास ने अठारह पुराणों की रचना का सार सिर्फ दो शब्दों में व्यक्त किया परोपकार पुण्य और परपीड़ा पाप अहंकार रहित होकर, निर्मल निश्चल भाव से, निःस्वार्थ, वसुधैव कुटुम्बकम् को ध्यान में रखते हुए मानवमात्र की सेवा ही परोपकार है।
इन्हीं उदात्त भावनाओं से प्रेरित होकर वर्ष १९९८ में श्रद्धेय स्वामी सत्यमित्रानंदजी के शुभाशीष से परोपकार का जन्म हुआ जो आज अपनी सेवा यात्रा के १२ वर्ष तय कर चुकी है। साहित्यिक, सांस्कृतिक-आध्यात्मिक आयोजनों से समाज को जागृत करनेवाली देश की यह एक अनोखी संस्था है। इस छोटी सी अवधि में ही परोपकार सेवा के क्षेत्र में एक ब्रांड बन गया है। संस्था ने सबके कल्याण की भावना से शिक्षा, चिकित्सा, गौ-सेवा, अत्र जल क्षेत्र सेवा, कन्या विवाह, सत्संग एवं राष्ट्र सेवा के माध्यम से अपना एक अलग मुकाम हासिल किया है।
समाज के आध्यात्मिक उत्थान हेतु संस्था द्वारा वर्ष २००६ में सवा लाख श्री हनुमान चालीसा पाठ अनुष्ठान एवं इसकी अपार सफलता से प्रेरित होकर वर्ष २००८ में आयोजित सवा पाँच लाख श्री हनुमान चालीसा पाठ अनुष्ठान ने संस्था की कीर्ति को द्विगुणित किया। यह अनुष्ठान परम पूज्य श्री गुरुशरणानंदजी महाराज के सानिध्य में आयोजित किया गया जिसमें राष्ट्र संत परम पूज्य श्री मोरारी बापू, परम पूज्य श्री रमेशभाई ओझा एवं परम पूज्य श्री रामभद्राचार्यजी ने हनुमंत चरित्र पर सारगर्भित प्रवचन देकर श्रोताओं को भक्ति से सराबोर कर दिया।
नवंबर, २००८ में परोपकार ने मुंबई की प्रथम ऐसी संस्था होने का गौरव हासिल किया जिसने सिंगापुर से एल्जि Star Virgo Cruise पर श्रीमद्भागवत कथा सप्ताह का आयोजन परम पूज्य श्री रमेशभाई ओझा (भाईश्री) के सानिध्य में आयोजित किया जिसका पूरे विश्व के ६०० से भी अधिक श्रद्धालुओं ने रसास्वादन किया। जनवरी, २०१० में भारतवर्ष से पहली बार श्रीलंका में परम पूज्य भक्तिभारती श्री प्रेमापांडूरंगजी के सानिध्य में श्री हनुमंत कथा का आयोजन किया गया जिसका पूरे विश्च के ५०० से भी अधिक श्रद्धालुओं ने रसास्वादन किया।
परोपकार अपनी सेवा यात्रा को अनवरत् जारी रखकर अधिकाधिक लोगों की सेवा करने का लक्ष्य हासिल करने के लिए विविध योजनाएँ तैयार कर रही है। २८ दिसंबर १९९८ के शुभ दिन मुंबई महानगर के दक्षिणी भाग में स्थित क्रास मैदान में श्रद्धेय स्वामी सत्यमित्रानंद जी के सानिध्य में और उपस्थित श्रद्धालुओं की उपस्थिती के बीच परोपकार संस्था ने जन्म लिया। उस स्मरणीय संध्या की बेला में महासागर के पश्चिमी तट पर प्रज्ज्वलित हुआ सेवा दीप अब सेवा की श्रेष्ठतम दीपश्रृंखला बनकर आज हर ओर प्रकाशमान हो रही है। समर्पित भाव, निष्ठा और लगन से सेवा इस संस्था की पहचान रही है। संतों के आशीर्वाद से संस्था ने कार्यारंभ किया और देखते ही देखते ९ वर्ष बीत गए। और आज संस्था १०वें वर्ष में प्रवेश कर चुकी है। ९ वर्ष में चिकित्सा, शिक्षा, अत्रजल क्षेत्र, कन्या विवाह, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक कार्यक्रमों की श्रृंखला में मुंबईवासी इसे जुड़ते गए। कार्यक्रमों की गरिमा ने हजारों लोगों को आकर्षित किया। सबसे अधिक लोकप्रियता कवि-सम्मेलन, सत्संग, हनुमान जयंती उत्सव, राधाष्टमीव उत्सव से मिली। राष्ट्रीय, नैर्सिगक आपदागस्त लोगों को साहयता राशि प्रदान करना और हर संकट में आम लोगों का साथ देना यही लक्ष्य लेकर चलते गए और संस्था ने वटवृक्ष का रूप धारण कर लिया।
परोपकार की स्थापना
मुख्य उद्देश्य तो समाजसेवा ही है। व्यापारी समाज की यह प्रतिनिधि सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक संगठन है। व्यापारी समाज में भी यह भावना पनपी कि व्यवसाय के साथ-साथ सेवा भी की जाए। सभी सदस्य देश और समाजसेवा की भावना से ही परोपकार से जुड़े हैं।
परोपकार की भावी योजनाएँ…
मुंबई में उच्च शिक्षा गहण करने आनेवाले बाहर के छात्रों के लिए छात्रावास की व्यवस्था करना। दुसरी प्रमुख योजना बाहर से इलाज कराने आनेवाले रोगियों के लिए परोपकार भवन का निर्माण करना है।
अष्टादश पुरोणेसु व्यासस्य वचनम् द्वयम्
परोपकाराय पुण्याय, पापाय पर पीडनम्
‘परोपकार’ को भारतीय संस्कृति का रंग-आत्मा का रंग माना गया है। परोपकार हमारे शरीर एवं स्वभाव की सुगंध है। दूसरों को कष्ट पहुंचाना जहां पाप है, वही परोपकार करना पुण्य है। क्या परोपकार करने के लिए अधिन धन, बल और जन चाहिए? नहीं. मनसा, वाचा, कर्मणा-परोपकार के उपादान हैं। अर्थात जरुरतमंद व्यक्ति को मदद करने की सोचना, किसी दुखियों के आंसू पोछने के लिए दो मीठे बोल बोलना और किसी के हितार्थ दो कदम चलना परोपकार का कार्य ही है। इसके लिए अधिक हाथों की जरुरत नहीं, जरुरत है संवेदनशील मनकी। बस. ऐसे कई दैनंदिन कार्य हैं जो परोपकारी हैं।
एक से एक मिले तो राई बन जाता है पर्वत। १९९८ में कुछ व्यक्तियों ने मिलकर समाजहित में चन्द कदम उठाए। श्रद्धेय श्री सत्यमित्रानंदजी ने संस्था का बिरवा लगाया और देखतेदेखते इस परोपकार’ संस्था ने आज वटवृक्ष का रूप ले लिया। जीवन के विभित्र क्षेत्रों में सेवाकार्य चल रहे हैं। कई प्रकल्पों को साकर किया गया है। छोटी छोटी बातों से ही बनती है बड़ी बातें। छोटे छोटे कदमों से ही हजारों मील की दूरियां मापी जाती हैं।
एक चले एकाकी कहलाए, दो से बन गए साथी
साथ साथ हम चलना सीखे, सेवा क्षेत्र के वासी
परोपकार से जुड़े हुए लोग समाज के बारे में सोचते हैं। ऐसे कार्यों के लिए जब मन जुड़ते हैं, तो जन भी जुड़ जाते हैं। धन की भी कमी नहीं होती। संस्था के लिए जन और धन की भा कमी नहीं होती। संस्था के लिए जन और धन हमें मिलते गए हैं। तभी कारवां बढ़ता गया है। आगे भी बढ़ेगा।
समाज प्रबल है। दूसरों के लिए थोड़ा भी समय और साधन निकालने का अवसर भाग्यशाली लोगों को ही मिलता है। जैसे देवदर्शन एवं संत समागम का संयोग बनता है, वैसे ही दीनदुखि यों की सहायता का भी सौभाग्य से अवसर मिलता है।